Sunday, May 10, 2015

मातुश्री



कितनी पीड़ा ह्रदय में मेरे
लेकिन माँ के आँचल को पकड़ रो न सका |
जिस गोद ने खुशियाँ ही दी ,
उसे अपने दुःख बता नीर से धो न सका |
कितने व्रत उपवास करती हैं ,
भूखी प्यासी रहती हैं, खातिर मेरे
आज उसे अपने पीर की खीर खिला न सका,
और कुछ नहीं आज उसे हँसा न सका |

हर रात थक हार के भी,
मुझे लोरी सुना के सुलाती
जो दुःखी होती फिर भी ,
मेरे दुःखों को समझ जाती
एक जादू है उसके हाथों में ...
मेरे घाव की चुभन पल भर में मिट जाती थी
जब वो माथे पर मेरे
जरा सा हाथ गुमाती थी |
आज वो घाव माँ को दिखा न सका ,
अपने दुःख आँचल में उसके फैला न सका |

कलम का रक्त और कोष में शब्द कम है
ये है दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती

इसमें अकथनीय दम है |
ये तो शब्दों की सीमा से परे है
बखान में माँ की ममता
सारे ग्रन्थ भी अधूरे है |
इस खुशियों के ब्रम्हाण्ड के आगे
अपने दुःख का तूफान ला न सका |
तू हर चीज समझ जाती है
इस खातिर शब्दों में बयान कर न सका |

आज तेरी ख़ुशी जरुरी है
क्योंकि
हर माँ किसी ना किसी घर की धुरी हैं
जिसपे टिका है परिवार हमारा
बिना इसके हर कल्पना अधूरी हैं |
तेरे अपार प्रेम के आगे
हम अपने शीश झुकाते है
माँ तेरे स्वर्णिम चरणों में
हम हर ऊँचाई पाते है |
मातृ शक्ति के आशीष से
हर भय से मुक्ति पाते हैं |


-----------------  रवि कीर्ति डिडवानिया

No comments:

Post a Comment

Thanks for visit this blog