Monday, March 30, 2015

विश्व सारा परिवार हमारा


विश्व सारा परिवार हमारा
क्या रखा है मुसलमान बनने में ?
ना ही कुछ मिलेगा हिन्दू बन जाने में
ना गुरुद्वारा इन्सान बनाएगा 
ना बाइबिल से तू इंसानियत पायेगा |

न कोई निशान ना कोई पहचान,
जिस्म से तू भी इन्सान,
जिस्म से मैं भी इन्सान,
न कोई हिन्दू न कोई मुसलमान |

धर्म के खेल पे बच्चों को सजा,
कहीं दुश्मनी कहीं दंगो को रचा |
क्या फर्क रखता है ईश्वर खुदा भगवान ?
वो भी है लापता ये भी है बे निशान |

कहाँ किसी को कतल करने का हक है ?
न ये गीता में लिखा है ना कहती है ये कुरान |
ना पर्दा लिखा है औरत पे,
न उनकी जन्नत है बस घर के काम |
ऐसा फतवा कब लिखा खुदा ने ?
शायद गलती कर रहा कोई इन्सान |

कहाँ है मेरा खुदा तेरा भगवान ?
कहाँ है मुझमे बंदगी और इंसान ?
खून बहाने से ना खुदा तेरा होगा
ना भला मेरा होगा |
ना चढ़ावे से तेरा खुदा अमीर होगा,
ना गरीब का घर रोशन होगा |
कट्टर मैं भी हूँ मगर इन्सान को बचाने में
क्या रखा है दंगों में लाशें बिछाने में |

क्या हो जाता है हमारी समझ को ?
खुद के धर्म पे हमला बर्दास्त नहीं
और लग जाते है दुसरे धर्मों को छोटा दिखाने में |

सवाल भी ठीक है
कि क्या फायदा है इन्सान बन जाने में ?
जवाब है एक दिन बिना धर्म के बिताओ |
कुछ नहीं इन्सान बन के दिखाओं |
कल जो थम गया था हाथ मदद का,
आज उस गेर मजहबी का हाथ थाम के दिखाओं |

वैसे क्या रखा है बदल जाने में ?
कैसे फिर में व्रत उपवास रोजा करूँगा ?
इंसानियत छोड़ खुदा को खोजा करूँगा |
क्यों ना सब में भाईचारा हो
क्यों ना सब जगह बस एक धर्म हमारा हो
ये धरती तेरा घर यही मेरा घर
बस एक परिवार हमारा हो
कोई न हो मदद को धर्म जात का सोदागर

बस इन्सान को इन्सान का सहारा हो |

Sunday, March 15, 2015

हम एक वजह रखते हैं

हम एक वजह रखते हैं 
मेरी नींदों की रुसवाई भी एक वज़ह रखती हैं,
मेरी ये तन्हाई भी एक वज़ह रखती हैं,
तेरी वफाओं पे अपनी उम्मीदों को क्या सझाया
आज मेरे टूटे सपने भी इक वज़ह रखते हैं l

यूं तो हम कुछ नहीं उनकी महफ़िल ए जिन्दगी में
पर अपनी कशिश का इक वज़ूद रखते हैं l
आज वादों से कुछ खफ़ा हूँ
पर अपनी बेवफाई की इक वज़ह रखते हैं l

शायद इतना चूर था आशिकी में कहीं
इसलिए अपनी महोब्बत की इक वज़ह रखते है l
आज उनको मेरे ज़स्बतों से वास्ता ना रहा
जिस मंजिल को पाने की कौशिश की थी
आज उसका रास्ता ना रहा
इसलिए मुड़ जाने की वज़ह रखते हैं l

यूं तो गुनगुनाता था तेरे लिए
कभी कोई गीत बन जाता था
हमें अपनी बेगुनाही से नफरत हो गयी है
इसलिए अपनी ख़ामोशी की इक वज़ह रखते है

तुमने जो खोया वो बेवज़ह ना था
मगर हमारी नींदों का क्या
उस राहत का क्या
उस चैन का क्या
इसलिए आज चैन से सो जाने की वज़ह रखते हैं l
एतबार महोब्बत का बे वज़ह रखते है l

मगर हो जाती है ये अनजाने में,
इस बात से हम रज़ा रखते हैं l
फिर भी किसी को फर्क नहीं पड़ता,
और यहाँ हम बे वज़ह मरते हैं
इसलिए आज चैन से सो जाने की वज़ह रखते हैं l