Wednesday, October 2, 2013

ख्वाहिसों के क़त्ल की कहानी

ख्वाहिसों के क़त्ल की कहानी
कहानी है ये उन उम्मीदों की,
महोब्बत के उन बाशिंदों की,
ये उस बेबस दिल की कहानी है,
जिसे प्यास है मगर ना पानी है,
जिसे आश है मगर बेमानी है l
आज मुज़रिम बना दिया,
जो जख्म दिया उसका रंग भी धानी है,
फिर भी एक आश है मगर बेमानी है l

जो पाक था उसे नापाक बना दिया,
आज मेरी ही ख्वाहिस का क़त्ल करा दिया,
और
मेने भी अपनी बेगुनाही को बेबस बना दिया l
वक़्त गुजरा मगर जख्म ना भर पाये,
अपनी ख्वाहिसों को मारा मगर खुद ना मर पाये,
आशिक बनने चला था, शातिर गुनहगार बना दिया l
आज अपनी ही ख्वाहिश का क़त्ल करा दिया l

प्यार से जो ख्वाहिसे थी, प्यार से ही रौंदी गयी ,
शिद्दत से जो तराशी थी, आज कब्र उनकी खोदी गयी l

क़त्ल के निशान है मुझ पर,
तेरा अहसान है मुझ पर,
के गलतफैमी भी ना रख सका तेरी वफ़ा की और,
बेदर्दी होने का इल्जाम है मुझ पर l
कातिल हूँ अपनी उम्मीदों का,
अपनी हसरतों का,
कातिल हूँ अपनी ख्वाहिसों का,
अपनी फितरतों का l
मौत से बेखोफ हूँ, मगर डर इन उम्मीदों का है
क़त्ल इनका कर दिया, पर डर रातों की नींदों का है l
तू क्या राहत देगा मुझे अपनी बेवफाई से,
अपने ही गुनाहों का डर है अपनी ही परछाई से l
बेमोहलत मारी है मेने अपनी इक इक चाहत को,
दिल जो लगा लिया कातिल ने इक हरजाई से l

अपनी ख्वाहिसों को मारते मारते,
सारे अहसास भुला दिये l
खाती रही मेरी तन्हाई मुझे रातों में,
इसलिए सारे ख्वाब सुला दिये l
अपने ही दिल पर तरस आता है, और
बेमौसम सावन बरस जाता है l
आईना देखना भी अब गवारा नहीं होता,
और कातिल बन के अपनी ख्वाहिशों का,
अब मुझसे और गुजारा नहीं होता l


“किस से कहूँ – के मैं बेगुनाह हूँ,
बस मैं तो अपनी वफ़ा के आग़ोश में था
किस से कहूँ - के बेवजा हूँ l”